Monday, January 31, 2011

आंसू


कुछ  लोग   मुझे  कहते  है  अब ,
क्यूँ  रोता  है  तू  रह- रह  कर ,
क्या  हार  गया  तेरा  ये  मन ,
इस  दुनिया  की  दर्दें  सहकर ,
तो  बोल  उठा  मैं  उनसे  फिर ,
आ  बैठ  मेरे  आगे   आकर ,
दो  अश्क  बहाकर  देखो  तुम ,
क्या  चलता  है  दिल  के  भीतर ,
क्या  समा  तुम्हारे  अन्दर  भी ,
जलने  लगती  यु  धू -धू  कर ,
वो  अश्क  तुम्हे  ठंडक  देती ,
क्या  मरहम  की  पुरिया  बनकर ?
भाई  साथ  मेरे  दो  अश्क  बहा ,
फिर  पायेगा  तू  ये  निश्चित ,
हर  दर्द  तेरे  बह   जायेंगे ,
तब  खुशियों  की  आंधी  बनकर |.

Saturday, January 22, 2011

गांधी


 ऐ गांधी! देखो  ना,
सब तुमको भूल रहे हैं,
छोर अहिंसा ,
पकर डाल,
हिंसा का झूल रहे हैं |
तुम्ही बताओ न इनको,
हरदम तुम,
रखते थे हथियार(लाठी),
फिर भी बोलो,
तुमने क्या,
किया किसी पे वार?
गाँधी का मतलब ये समझे,
इक हड्डी का ढांचा,
अनंत आदर्श ढले हैं जिसमें,
गाँधी बस ऐसा सांचा |
समझाओ इनको,
दो बुद्धि तुम हे बापू!
दुनिया  सारी इक समुद्र,
तुम इक अकेले टापू |
पंचतत्व में हुए भले ही,
सन अरतालिश में विलीन,
फिर भी तेरा पावन रूप,
हुआ कहाँ है क्षीण!
सिखलाओ न इनको,
करें ये ,
मातृभूमि  से प्यार,
देख के सुख ,
दूजे देशों में,
मत टपकायें लार |
लहक-चहक वाले वस्त्रों की ,
इन्हें जरुरत क्यों खली?
बतलाओ इनको,
के अपनी धोती-सारी बहुत भली,
कुछ भी हो जल्दी,
इनका मस्तिक्स करो तुम साफ़,
ईंट के बदले,
मत फेंको पत्थर ,
कर सकते हम उनको माफ़ |




 

ठंड


अरे आज इस करक गर्मी में,
मुझे ठण्ड क्यूँ महसुश हो रही?
अरे मेरे हाथ-पैर ,
बर्फ के ढेर क्यों बने जा रहे?
क्यों जम रही है मेरी सांसें ?
कहीं आज कोई,
अपसकुन तो नहीं होने वाला?
संसार का अस्तित्व ,
आज इस क्षण तो नहीं खोने वाला?
बताओ ना,
मेघ आज अग्नि तो नहीं बरसाएंगी?
की ये निर्बोध जल,
समुन्दर बनकर तो नहीं छायेंगी?
कोई तो बोलो,
की कहीं धरती का कलेजा तो नहीं फटेगा?
कोई पर्वत आज अपने जगह से तो नहीं हटेगा?
बरा भयभीत हूँ मैं,
धरकन बंद होने को है,
रूह मेरी मुझसे,
हाँ, मुझसे ही खोने को है,
सुनना चाहता हूँ मैं,
कहीं छुटेगी तो नहीं ज्वालामुखी ?
होगी तो नहीं,
कोई महाशक्ति हमसे दुखी?
अरे सब मिलकर सोचो न,
जरा जोर लगाओ,
की इस करक गर्मी में,
मुझे ठण्ड क्यों महशुश हो रही?


Saturday, January 15, 2011

नव वर्ष

अरे ये कुछ लोग,
ख़ुशी से पागल क्यों हुए जा रहे हैं?
उस कोने से भी कुछ जन,
झूमते-गाते इधर को क्यूँ आ रहे हैं?
क्या इनके लिए ये दिन,
 है कुछ विशेस?
इन्हें ही क्यों दोस दूँ ,
पागल हो झूम रहा सारा देश,
जब वही दिन और ठीक वैसी रात आएगी ,
जरूरतों से पटी परि,
दुःख से भींगी,
तो फिर क्यों हम आज  मनाये हर्ष?
कैसे कहूँ किसी को लगाकर गले "मुबारक नववर्ष "?

कल की तरह ही फिर,
इकबार और ,
हम आँशु बहायेंगे,
सुख से तृप्त हो नहीं,
दुःख-दर्द से ही नहायेंगे |
छानेंगे दर-दर की ख़ाक ,
नौकरी को लेकर |
दो जून की रोटी पायेंगे,
बमुश्किल,
अपने खूं को बेचकर|
 क्यूँ खाएं तो आज,
दूसरों से लेकर कर्ज,
बढाएं क्यों, आखिर क्यों ,
अपना ही मर्ज?
के जब जानते हैं  कल से फिर खाली होगी अपनी पर्स ,
कैसे कहूँ किसी को लगाकर गले "मुबारक नववर्ष "?

ये जानते हुए,
के आज कर लें कितनी भी मस्ती,
कल वही तबाही की मंजर होगी,
खांसते रहेंगे ,
कलेजा फारकर, बनकर रोगी |
भले  ही आज कुछ 'बरे' लोग,
कर रहे हैं अन्न-वस्त्र दान,
कुछ के यहाँ तो हो रहे,
बकायदा अनुष्ठान |
लेकिन फिर कल से थाल में,
 होगा वही निवाला,
बैठे रहेंगे धरकर माथ,
बनकर के दिवाला |
सोने को मिलेगा रात में वही सर्द फर्श,
कैसे कहूँ किसी को लगाकर गले "मुबारक नववर्ष "?

ये नाचना-गाना क्यों ,
जबकि कल से फिर,
हम ठीक से चल ना पायेंगे |
थक कर चूर होगा बदन,
फिर  संगीत पर,
कैसे इसे थिरकायेंगे?
आज भले ही जला लें,
भारे पर,
बत्ती गुलाबी,
फिर कल को घर होगा अन्धेरा,
जहां आज विराजमान है प्रकाश,
कल वहाँ होगा,
अन्धकार का डेरा |
फिर वही लरखरा कर गिरना ,कहाँ होगा उत्कर्ष?
कैसे कहूँ किसी को लगाकर गले "मुबारक नववर्ष "?

क्यूँ पेहेन लें सर पे ,
कुछ घंटों के लिए,
मखमली टोप ?
के जब जानते हैं के धोना हैं,
हमें काँटों का ताज |
हमारा कुछ कहाँ,
उत्सव वो माएं,
जो कल फिर करेंगे हमपर राज,
मखमल क्यों ओढें,
जबकि कल से,
न होगा शरीर पर वस्त्र नसीब,
खून और पसीना बस ,
होंगी अपने शारीर के करीब |
गर्मी में वही झुलसाती किरनें,
ठंढी में सर्द-आंधी करेंगी शरीर को स्पर्श,
कैसे कहूँ किसी को लगाकर गले "मुबारक नववर्ष "?

आज घर के छत से ,
क्यों लटकाएं ,
पटाखे औ गुब्बारे?
पर भर के लिए क्यों देखें,
चलते सपनों के फव्वारे?
शरीर के इन दागों को ,
दूसरों से क्यूँ छिपायें,
वे खुद जानते हैं,
आखिर ये हैं उनकी ही देन |
जो खून बेचते हैं हमारी,
खुद के शराब के लिए,
उनसे क्यों करे हम लेन?
जब अब तक न तोरा तो क्यूँ तोरें आज अपना आदर्श ?
कैसे कहूँ किसी को लगाकर गले "मुबारक नववर्ष "?
 







तो गा लेता गीत

आता कोई अतिथि तो ,
उसका करने को सत्कार,
सो रहे लाडले मुन्ने से,
जतलाने को प्यार,
और नहीं तो घर-आँगन की,
जब परे निभानी रीत,
तो गा लेता गीत|

देख आसमा में ,
छिटके दूर-दूर पर तारों को,
बादल ढक ले  सुन्दर चंदा को,
अपने आँचल में ज्यों,
या रात-रात भर ,
हो आभाष गिरने के जब शीत ,
तो गा लेता गीत |

करूँ भ्रमण कहीं,
और दिख परे छाई हरियाली,
फल-पत्तों से जब ,
भरी परी हो डाली-डाली,
या दिखे वल्लरियाँ फैली,
चहके वो प्रसन्न हो  नीत,
तो गा लेता गीत|

या मैदाँ पर होवे,
जब भी अपनी अच्छी हालत,
दुश्मन हो तैयार खरा,
होने को आगे नत ,
एक के बाद एक बहु ,
जब दिखे सामने जीत,
तो गा लेता गीत |

सुनने को आये कोई भी,
हंसी भरा संवाद,
दुःख के क्षण हो कम-कम ,
सुख का बहुत बरा तादाद,
कान परे जब किसी साज का ,
कोई भी संगीत,
तो गा लेता गीत |

या देख सरक पर,
आती कोई कहीं उर्वशी,
चेहरे पर छाई शर्म-हया ,
औ नजरें खुद में ही धंसी,
मन करे लगाने को उससे,
गर यार मुझे भी प्रीत,
तो गा लेता गीत|

दुःख के क्षण में जब कोई हो,
साथ हमारा अपना,
दुःख से पार लगाने का,
कोई दिखा रहा हो सपना,
खोया सालों-साल से कोई,
मिल जाता गर मीत,
तो गा लेता गीत|

दर्द

हर बार पलक ज्यों बंद करूँ  ,
एक परी नजर आती मुझको ,
वो ऑंखें उसकी कजरारी ,
वो स्नेह  छलकते लव उसके ,
फिर जाता मैं उसके समीप ज्यों ,
इठलाती वो पुष्प तरह ,
औ  बलखाती , यु  मटकाती ,
कुछ कहती है  मुझको हँसकर ,
मैं हाथ  बढ़ाता छूने को  ज्यों ,
चिंगारी कुछ  आती है ,
मेरे सपनों में आग  लगा ,
वो छूमंतर हो जाती है ,
ज्यों सिखलाती हो  वो मुझको ,
इन सपनों का कोई अर्थ नहीं ,
मुस्काने की मत सोचूं मैं ,
मैं रहूँ जहाँ  है दर्द वहीँ |

Friday, January 14, 2011

युद्ध की तैयारी

  छील -छील  कर  दिल का मैंने धनुष बनाया  आज,
प्राण हमारा  आज करेगा  खूब   बाण   का काज  ,
डोर  अनिल  का बांधा  है बस लगता है मजबूत  ,
युद्ध   क्षेत्र  में निकल  परा है आज भूमि  का पूत  |

रथ  होगा अब साहश  का औ अग्नि   होंगे     घोरे  ,
दौराएगी  इसको  इच्छा  , ये ही रथ  को मोऱे ,
पीठ  देखलो  लड़ा  हुआ है बांधे  शक्ति  अकूत ,
युद्ध   क्षेत्र  में निकल  परा है आज भूमि  का पूत  |

घास -पात  सब चरण  धो  रही , किरनें  करती  चन्दन ,
सब ख़ुशी-ख़ुशी हैं विदा  कर रहे , कोई करे कहाँ है क्रंदन?
पंछी की  बारात नें बांधा हैं कलाई पे सूत ,
युद्ध   क्षेत्र  में निकल  परा है आज भूमि  का पूत  |

पर्वत का वो शिखर देखते, देंगी वो आशीष,
उद्वेलित करेंगी हमको,अब ये दही सब दीस ,
सब मिलकर इतिहाश गढ़ेंगे ,बिना छुआ और छूत,
युद्ध   क्षेत्र  में निकल  परा है आज भूमि  का पूत  |